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नहीं जानती


नहीं जानती
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किस रूप में जन्म लूँगी फिर यह  नहीं जानती
हिंदू -मुस्लिम -ईसाई -सिख यह नहीं जानती


मेरा -तेरा करने वाले कब थमेंगे नहीं जानती
इंसान हूँ ईश्वर को हर रूप में ही हूँ बस मानती


कब छीटा कशी छोड़ेगा इंसान ये नहीं जानती
औरों के मान को कोई ना डसेगा नहीं जानती


किसी धर्म के नाम पर दंगा फिर होगा हूँ जानती
इस बार कोई एक इंसान मरेगा इतना हूँ जानती

आराधना  राय 


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ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©
कैसे -कैसे दिन हमने काटे है  अपने रिश्ते खुद हमने छांटे है पाँव में चुभते जाने कितने कांटे है आँखों में अब ख़ाली ख़ाली राते है इस दुनिया में कैसे कैसे नाते है तेरी- मेरी रह गई कितनी बातें है दिल में तूफान छुपाये बैठे है  बिन बोली सी जैसे बरसाते है