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बात थी





                            बात  थी 

कुछ अजीब रात थी ,शायद वो पहली मुलाक़ात थी
भीड़ में अकेले थे लेकिन  उसकी अलग पहचान थी 

उदास चेहरा पे आँखों में चमक आज भी मुझे याद थी 
वो सोचता ज़्यादा था,यही उसकी यही ये खास बात थी 

दुनियाँ के तौर तरीकों से नहीं  कोई उसकी पहचान थी 
उसकी पेशानियों पे लिखी यू तो हर रोज़ कि ही बात थी 

अपने दुख  दर्द से उसकी एक ज़माने से कोई पहचान थी 
 उसकी ख़ामोश निगाहों में   "अरु " अज़ीब सी  बात  थी 
आराधना राय  


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ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©
कैसे -कैसे दिन हमने काटे है  अपने रिश्ते खुद हमने छांटे है पाँव में चुभते जाने कितने कांटे है आँखों में अब ख़ाली ख़ाली राते है इस दुनिया में कैसे कैसे नाते है तेरी- मेरी रह गई कितनी बातें है दिल में तूफान छुपाये बैठे है  बिन बोली सी जैसे बरसाते है