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पीड सी



पात पात पर इठलाती प्रहरी
भोर हो कोई सुनहरी

तुम भोर हो पहली किरण कि
और मैं ढलती साँझ सी

कर रही नव किसलय स्वादन
प्रथम रंगिणी विभोर सी

मैं सूर्ये नहीं ना  हूँ रत्नाकर
हूँ सूर्ये कि पीड सी
                                                                                                                                                                  तिमिर को सह कर  ह्रदय में
चंद्र कि विभा सी

 मिटा कर आलोक में स्वयं को
 बनी  नव गीत सी

तुम जीवन के प्रयाण का प्राण
मैं अंत हूँ सुरभि सी

छेड़ती है राग-प्रेम बन  "अरु" का
 मानों ह्रदय कि टीस सी
आराधना राय













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कैसे -कैसे दिन हमने काटे है  अपने रिश्ते खुद हमने छांटे है पाँव में चुभते जाने कितने कांटे है आँखों में अब ख़ाली ख़ाली राते है इस दुनिया में कैसे कैसे नाते है तेरी- मेरी रह गई कितनी बातें है दिल में तूफान छुपाये बैठे है  बिन बोली सी जैसे बरसाते है

ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©