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बाबूल




बाबूल
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बचपन में तेरी उंगली को जब यू थाम चली थी
डगर उसी दिन से ये लंबी पहचान ही चली थी
तेरी बाहों में आ कर देखा ये पूरा ही संसार मैंने
बाबूल तेरे आँगन कि वो ही नन्हीं सी कली थी
तेरी बातों ने मेरी जुंबा को नए से शब्द ही दिए थे
जीवन से पहचान उसी दिन ही जा कर तो हुई थी
तेरे बिन अश्रु धारा कितनी यहॉ यू बहा कर चली हूँ
बगैर धुप का पौधा ही हूँ पेड़ मैं कब बन ही सकी हूँ
तेरी हर बात को आज भी मन में यू बसाए हुए हूँ
कठिन से जीवन कि डोर "अरु " ये भी थाम चली हूँ
आराधना राय

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