Skip to main content

उहापोस





रोज़ रोज़ कि उहापोस से मैं स्वयं  डरती हूँ
 ताने -बाने से सपनों के  ही कही बुनती हूँ 

समय कि चोरी होने भी घबराती  नहीं हूँ 
लम्हा लम्हा सा ज़िन्दगी को बांधती हूँ 

डर रही हूँ या मैं अपने में जीती जा  रही हूँ 
यह भी नहीं अब तुझे बहलाना  चाहती  हूँ 

खुल कर विरोध नहीं करती पूछती फिरती हूँ   
अपनों पे मरना  अधिकारों से लड़ना जानती हूँ

पराई पीर भी अब जी कर अभी यहाँ  जीवित रही  
जिस के लिए मर कर जीना भी अब मैं जानती  हूँ  \
आराधना 

Comments

Popular posts from this blog

ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©
कैसे -कैसे दिन हमने काटे है  अपने रिश्ते खुद हमने छांटे है पाँव में चुभते जाने कितने कांटे है आँखों में अब ख़ाली ख़ाली राते है इस दुनिया में कैसे कैसे नाते है तेरी- मेरी रह गई कितनी बातें है दिल में तूफान छुपाये बैठे है  बिन बोली सी जैसे बरसाते है