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जीवन पुकार






प्रीत कि डगर सब से खरी  होती है
यहाँ जीत हार किस कि कब होती है

मन में प्रेम निष्ठा उत्कृष्ठ होती है
मन रहे तृषित जब भी पुकार होती है

बनते सवरते जीवन में आस होती है
सूर्ये कि क्या कभी यू हार भी होती  है

अंतस  में ही अंतःसलिला भी होती है
जीवन पुकार चलने के लिए होती है
आराधना राय  

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नज़्म

अब मेरे दिल को तेरे किस्से नहीं भाते  कहते है लौट कर गुज़रे जमाने नहीं आते  इक ठहरा हुआ समंदर है तेरी आँखों में  छलक कर उसमे से आबसर नहीं आते  दिल ने जाने कब का धडकना छोड़ दिया है  रात में तेरे हुस्न के अब सपने नहीं आते  कुछ नामो के बीच कट गई मेरी दुनियाँ  अपना हक़ भी अब हम लेने नहीं जाते  आराधना राय 

नज़्म

 उम्र के पहले अहसास सा कुछ लगता है वो जो हंस दे तो रात को  दिन लगता है उसकी बातों का नशा आज वही लगता है चिलमनों की कैद में वो  जुदा  सा लगता है उसकी मुट्टी में सुबह बंद है शबनम की तरह फिर भी बेजार जमाना उसे लगता है आराधना

अच्छा था

ज़िन्दगी तेरे बिना जी लेते तो अच्छा था दामन आंसुओं में भिगो लेते तो अच्छा था सुना कर हाल दिल का रात भर रोये तुम से राब्ता न होता दिल का तो अच्छा था दिल धड़कता रहा मगर जुबा चुप थी मेरे इकरार को इंकार समझ लेते तो अच्छा था ख़ुशी की महफिले कम पड़ी गम भुलाने में हमें तुम याद न आते अरु तो अच्छा था