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चलन


 
बेज़ुबानी भी एक चलन है बस जीने का 
अपनी ही सोच में अपने आप चलने का

धूप थी सख्त पर कोई शज़र ना मिला 
ज़िन्दगी में कोई भी हमसफर ना मिला 

हमने नेकियों पर भी बदी का सिला देखा 
ज़ुल्म सह-सह  कर उन्हें बस हँसते देखा  

माना कल फिर से ये मंज़र बदल जायेगा
कोई ना कोई बादल तो जरूर बरस जायेगा 

आराधना   





 











प्रीत कि अजब दास्ताँ क्या कर  देखी 
घनीभुत पीड़ा में दूसरे कि खशी देखी

हवाओं का रुख कब जाना किसी ने
हर घड़ी बस तुमको आवाज़ दे  दी  


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कैसे -कैसे दिन हमने काटे है  अपने रिश्ते खुद हमने छांटे है पाँव में चुभते जाने कितने कांटे है आँखों में अब ख़ाली ख़ाली राते है इस दुनिया में कैसे कैसे नाते है तेरी- मेरी रह गई कितनी बातें है दिल में तूफान छुपाये बैठे है  बिन बोली सी जैसे बरसाते है

ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©