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कवित -परंग


                                    कवित -परंग 



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बोल कोई मीठे कोई बोलता है
वही मन में कहीं समां जाता है
भाव विह्ल हो मूक हो जाते है ,
शब्द नए गढ़ जीवन  पाते  है
कोई  रूप रंग  में ढल जाते है
फिर भावों में सृजन पलता है
सुख सपनों  का यही संसार है
बनता सहज़ जीवन आधार है


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ज़िन्दगी आसान नहीं
फिर भी चलना होगा
रहेंगी बात सदा याद
मुझे अब बदलना होगा



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जाने क्याये  कह जाती है
मुझसे यू  हवा रह रह कर
कौन सी बात उठी सरे बाज़ार
कुछ कह ना सकी रह रह कर

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गीतों के मौसम में
साज़ बन के देखिये
नई इन उम्मीदों  की
परवाज़ फिर ये देखिये
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ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©
कैसे -कैसे दिन हमने काटे है  अपने रिश्ते खुद हमने छांटे है पाँव में चुभते जाने कितने कांटे है आँखों में अब ख़ाली ख़ाली राते है इस दुनिया में कैसे कैसे नाते है तेरी- मेरी रह गई कितनी बातें है दिल में तूफान छुपाये बैठे है  बिन बोली सी जैसे बरसाते है