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स्त्री ही स्त्री को नहीं जानती



अपने आप को क्यू नहीं जानती
जंग किससे लड़े क्यू नहीं जानती

दुःख भंजनी ,क्यों  दुःख को  ना हरे
अपने दुखों को ही नहीं क्या जानती

विवाह वेदी अंतिम चिता नहीं बनती
गर हर सास माँ भी बनना जानती

कोई बुढ़ापा गलियों नहीं सिसकता
गर बहु भी कुछ बेटी बनना  जानती

दुहाई  कानूनों को सिर्फ क्यू देती हो
स्वयं को जागृत करना नहीं जानती

लज़्ज़ा से सिर झुकायें स्त्री खड़ी हो
 लाज किसी की ढकना नहीं  जानती

पत्थर जब मारता ये  पुरुष समाज है
साथ मिल कर तुम ताने नहीं मारती

स्त्री ही स्त्री को क्यों फिर नहीं जानती
अपनी श्रेष्ठता स्वयम नहीं पहचानती

आराधना


copyright : Rai Aradhana ©



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