Skip to main content

शेष




शेष रही केवल आशाये  
जो बनी कोमल भावनाए
पँख ,पखेरू उड -उड़ जाये
 साजन तुम क्यों नहीं आये
वर्षा जल जब मेघ गिराये
सब रस उर में ही बस जाये

मधुर भावनाओं का परिहास
वहाँ रहा  तेरा और मेरा  हास्
जब मन की  पहचान नहीं थी
बोलो अब किन नयनं कि आस
सदा ना होती जग में  पूरी प्यास
 जब प्राणों को प्राणों कि हो  आस

रूप, रंग के इस नव यौवन पर ही  
क्या यू ही चलेगा तेरा अभिसार
और जगत के बढे बंधन पर भी
चल पाया क्या ये सब कार्य व्यापार

 आराधना
@copyright






Comments

Popular posts from this blog

ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©
कैसे -कैसे दिन हमने काटे है  अपने रिश्ते खुद हमने छांटे है पाँव में चुभते जाने कितने कांटे है आँखों में अब ख़ाली ख़ाली राते है इस दुनिया में कैसे कैसे नाते है तेरी- मेरी रह गई कितनी बातें है दिल में तूफान छुपाये बैठे है  बिन बोली सी जैसे बरसाते है