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नहीं जानती हूँ।


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अभी मैं लिखना
नहीं जानती हूँ ,
ख़्वाब बुनती हूँ
मन के धागों से
जिसे सिलना भी
नहीं जानती हूँ ,
कोई ओस की बूंद 
हाथ में आई,
मानो शबनमी  धूप
में फिर  हो नहाई।
क्या कहू  ज़ज़्बात
कि ही मानती हूँ,
अभी तो मैं
लिखना भी नहीं
जानती  हूँ।

कोई मीठी सी
बात होठो पे
आकर मुस्कुराई,
उसे तो मैं अभी 
जीना भी नहीं
जानती हूँ।

आराधना

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