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ग़ज़ल ज़र्रो की



              बना के आशियाँ मेरा , वो छुप गया  कहीं
              दरों ,दीवार क़ो बस देखते फिरे  हम यू ही 


              ना  दोस्ती की कभी जोरे ज़ब्र से हमने यू ही              
              कहीं हर एक बात तन्हां खामोशियों से यू ही 

                बदगुमानी ही सही, होती रही मुझको कहीं 
                तेरा साया था जहां रोती रही रात भर यू ही
                
              ये कहना जुर्म था  'अरू  ' कौन बदहवास कही 
             खून बन के दौड़ता ही फिरा,बरसों रनाइयो में यू ही 
            copyright rai aradhana rai ©



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ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©
कैसे -कैसे दिन हमने काटे है  अपने रिश्ते खुद हमने छांटे है पाँव में चुभते जाने कितने कांटे है आँखों में अब ख़ाली ख़ाली राते है इस दुनिया में कैसे कैसे नाते है तेरी- मेरी रह गई कितनी बातें है दिल में तूफान छुपाये बैठे है  बिन बोली सी जैसे बरसाते है