मन ये आतंक का शिकार व्यर्थ सा क्यों अब हो कहीं खो गया
निष्फल हो रही देव साधना और मानव कहीं तिरोहित हो गया
मन बेचैनी का दर्पण सुख पे रीझा दुःख में कुम्हलाया रीत गया
जाने कौन सी स्मृति का विस्मित सा यू ही अब तो हरण हो गया
जग बैरी था उसमें जीना व्यवधान सा दुष्कर यू प्रतीत ही हो गया
उन्मुक्त ह्दय भी बेड़ियों के अधीन क्यों अब व्यथित सा हो गया
भावनाओं के साथ खेलता ये संसार था जीवन जीना यू प्रश्न हो गया
"अरु" साँकल चढ़ा लो दरवाज़ों पे यहाँ अब आतंक का व्यापार हो गया
आराधना राय
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